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वेलकम टू अंबानी-अडानी इंडिया प्राईवेट लिमिटेड

 Chandigarh,भारत की जनता को बहुत जल्दी नई सौगात मिलने वाली है। जब कोई भी देश से भारत पहुंचेगा तो एयरपोर्ट पर लिखा पाएगा, वेलकम टू अंबानी- अडानी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड। शायद कई लोगों को मेरी बात तंज लगे या कटाक्ष महसूस हो किंतु यह मुझे तो यह अक्षरक्ष सत्य प्रतीत होती लग रही है क्योंकि जिस हिसाब से सरकारी कंपनियों को घाटे के नाम पर लगातार निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए बेचा जा रहा है। दीगर बात है कि बेचा भी सिर्फ दो उद्योग घरानों को जा रहा है। उससे तो यही महसुस होता है कि मेरा उपरोक्त कथन कदाचित सच हो जाएगा। वैसे तो देश के तेल, गैस, कोयला, बिजली मतलब सारे इंधन के क्षेत्र अंबानी-अडानी को दे दिए गए हैं। वहीं विमान और रेलवे को भी निजी हाथों में सौंप दिया गया है किंतु फिर भी मैं आश्वस्त हूं कि अभी बाकी बचे हुए रेलवे स्टेशन से यदि काम न बने तो निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि अभी बस अड्डे, टैक्सी स्टैंड, ऑटो रिक्शा स्टैंड यहां तक कि रिक्शा स्टैंड बाकी है। जिनको निजी करण के नाम पर अंबानी-अडानी घरानों को सौंपा जाना बाकी है। वैसे तो साइकिल स्टैंड, खाने-पीने की कैंटीन, रेहड़ी-फड़ी वाले जगह और छोटे फुटकर विक्रेता, तो इनको भी तरक्की और विकास के नाम पर अंबानी-अडानी को दिया जा सकता है। और यदि ऐसा होता है तो वह दिन दूर नहीं कि जब हिंदुस्तान का नाम बदलकर अंबानी-अडानी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड कर दिया जाएगा। मैं निजी तौर पर कारोबार के बिल्कुल भी खिलाफ नहीं हूं लेकिन नियम-कायदों को ताक पर रखकर व्यक्ति विशेष या उद्योग घरानों विशेष को सारा अर्थतंत्र सौंप देना या उसके हिसाब से आर्थिक नीतियों को बनाना निश्चित रूप से किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र प्रणाली के लिए खतरनाक है। लोकतंत्र की मूल अवधारणा ही, सबका साथ सबका विकास है किंतु वर्तमान सरकार के संदर्भ में तो लगता है कि यह नारा उन्होंने केवल बोलने के लिए दिया है इसका कोई सार्थक इस्तेमाल करते नहीं दिखते। दीगर बात है कि आम आदमी विरोध तो करता है लेकिन वह केवल सांकेतिक होता है उसका यथार्थ से कोई लेना देना नहीं है। कभी-कभी लगता है कि सरकार के अपने ही लोग हैं जो महज विरोध करने के लिए विरोध करते हैं ना कि इसलिए विरोध करते हैं कि कोई विरोधपूर्ण तथ्य भी है। वर्तमान सरकार से कोई ढंग के काम की अपेक्षा रखना मूर्खतापूर्ण है लेकिन, वायदे, कोरीलफ्फा़जी, जितनी मर्जी ले लो। कभी-कभी तो मुझे ढपोरशंखर की कहानी याद आती है, जो मांगने वाले को हर चीज दुगनी देने का वायदा करता है लेकिन देता कुछ भी नहीं। लेकिन मुझे मेरी खुद की बात बेमानी लगती है क्योंकि दो औद्योगिक घरानों को यह सरकार विशेष नैसर्गिक फायदा दे रही है, जिसको हिंदुस्तान में रहने वाला हर आदमी महसूस कर रहा है विरोध भी करता है लेकिन उसका विरोध दब के रह जाता है। यह बेहद कमाल की बात है कि धरने पर बैठा दम तोड़ता, विरोध करता किसान लगातार नजरअंदाज हो रहा है। उसको जमीन जाने का डर है, सरकार को परवाह नहीं।  हमारा देश कृषि प्रधान देश रहा है और खेती-बाड़ी ही हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है। लेकिन अब वर्तमान परिदृश्य हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दो उद्योग घराने रीड़ की हड्डी के सारे मणके निकाल कर उसे अपने नियंत्रण में लेकर अपने हिसाब से सेट करना चाहते हैं। जिसके दूरगामी भयानक परिणाम आम इंसान समझ रहा है लेकिन जिद्दी, ढीठ, बहरी और आत्ममुग्ध सरकार किसी की बात सुनने को तैयार नहीं है और जो सुन ही नहीं रहा है, वह समझेगा क्या?और जो समझ नहीं रहा है, वह ध्यान क्या देगा। सरकार इस बात से अनभिज्ञ नहीं कि जो हो रहा है कदाचित वह गलत है लेकिन 'नैतिकता के आधार पर व्यवहार' की उम्मीद इस सरकार से करना अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। बहरहाल हम यही कामना करते हैं कि सरकार वक्त रहते चेत जाए और आने वाले पीढ़ियों को उसी लोकतांत्रिक प्रणाली को सौंपा जाए। जिस लोकतंत्र प्रणाली की दुहाई यहां सरकार देती रही है जिस लोकतंत्र को बहाल करने के लिए हमारे पूर्वजों ने सैकड़ों कुर्बानियां दी।

*हम कोई रोशनी नहीं जिससे पर्दे से रोक लोगे*               *हम आवाज हैं दीवार से छनके आते हैं*

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